जनमत सर्वेक्षणों से लगातार पता चलता है कि लोगों को पशुपालन उद्योग स्वीकार्य नहीं है — जिसमें प्राणियों को क़त्ल करने के लिए भयानक, तनावपूर्ण और तंग परिस्थितियों में पाला जाता है। इसका कारण यह है कि बहुत से लोग प्राणियों की परवाह करते हैं और खुद को पशु प्रेमी बताते हैं। फिर भी, ज़्यादातर लोग मांस खाते हैं और अधिकतर मांस पशुपालन उद्योग में पाले गए जानवरों से आता है। तो, इस समस्या को कैसे सुलझाया जाए? आखिर चल क्या रहा है?
बच्चों को वाक़ई प्राणियों से प्यार होता है
अधिकतर सभी बच्चों को प्राणियों से प्यार होता है। लेखक इस बात को जानते हैं, इसलिए बहुत सी चित्र पुस्तकों में प्राणियों को पात्रों के रूप में दिखाया जाता है। खिलौने बनाने वाले इस बात को जानते हैं, इसलिए बच्चों के कमरे टेडी बेयर, उल्लू, सूअर और अन्य प्राणियों के खिलौनों से भरे होते हैं। माता-पिता यह जानते हैं, इसलिए बहुत से लोग अपने जीवन में, घरों और परिवारों में ‘पालतू जानवरों’ के लिए जगह बनाते हैं।
एक्सेटर (Exeter) विश्वविद्यालय द्वारा हाल ही में किए गए एक अध्ययन में पाया गया कि 9-11 वर्ष की उम्र के ब्रिटिश बच्चों का मानना है कि, पशुपालन उद्योग के प्राणियों के साथ वैसा ही व्यवहार किया जाना चाहिए जैसा कि हम पालतू प्राणियों और लोगों के साथ करते हैं। पृथ्वी पर रहने वाली विभिन्न प्रजातियों के बीच उन्हें कोई व्यावहारिक भेद नहीं दिखता है, बल्कि उनका मानना है कि हर कोई समान देखभाल और सम्मान का हकदार है। ऑनलाइन साझा की गई अनगिनत फिल्मों में हमें इस मान्यता का समर्थन मिलता है, जहाँ दुनिया भर के बच्चे जानते हैं कि मेज पर खाने के लिए रखा हुआ मांस वास्तव में एक जानवर है। और यह जानकर वे बहुत परेशान होते हैं।
शुरूआत में हमें लगता है कि हममें दया, करुणा और तार्किकता है, लेकिन फिर बाद में इन दो विरोधाभासों पर टिके रहने के लिए नैतिक और मानसिक कश्मकश का सामना करना पड़ता है, ये विरोधाभास ऐसे हैं कि: 1) मुझे जानवरों से प्यार है। 2) मैं जानवरों का गला काटने के लिए पैसे देता हूँ।
यह कैसे होता है?
प्राणियों को हम सही में प्यार करें यह जोखिम मांस उद्योग नहीं उठा सकता
मांस उद्योग 2 लाख करोड़ डॉलर का बिज़नेस है और वह ऐसे कई तरीके आजमाता है, जिससे जानवरों के प्रति हमारा प्यार तो बना रहे पर हम उन्हें खाना न छोड़ें। यू.के. में ग्लॉस्टरशह विश्वविद्यालय में पारिस्थितिक भाषा विज्ञान के प्रोफेसर एरन स्टिबी ने मांस उद्योग की भाषा और कल्पना का अध्ययन किया है और उन्होने तीन विशिष्ट तरीकों का वर्णन किया है, जिनसे जानवरों को हमारे दिमाग से मिटा दिया जाता है। वे ये तीन तरीकें बताते हैं: शून्य, निशान और मुखौटा।
पीड़ितों की पूर्ण उपेक्षा
यह वैसा ही है जैसा सुनाई देता है। जानवरों को इस चर्चा से पूरी तरह से गायब कर दिया जाता है। मांस का विज्ञापन एक प्राकृतिक उत्पाद के रूप में, स्वादिष्ट खाने के रूप में, और आकर्षक जीवन शैली को बढ़ावा देने वाले तरीके के रूप में किया जाता है, जो कभी भी किसी जानवर जैसा नहीं दिखता है। इस बात का कहीं पर भी उल्लेख ही नहीं होता कि यह कहाँ से आया है यहाँ तक कि यह भी नहीं बताया जाता है कि यह हकीकत में क्या है। तो फिर, प्राणियों ने किन परिस्थितियों को झेला है, उनका व्यक्तित्व, उनकी पसंद, उनके जीवन के अनुभव और दोस्ती जैसे विवरणों की तो बात ही छोड़ो! प्राणियों का तो बिल्कुल भी ज़िक्र ही नहीं किया जाता है। मानो उनका कोई अस्तित्व ही नहीं था और ना ही इस खाद्य प्रणाली में उनका कोई हिस्सा।
वे हमें यह दिखाते हैं:

पर वे हमें यह नहीं दिखाते:

निशान
प्रोफेसर स्टिबी की दूसरी श्रेणी के अनुसार, मांस उद्योग सिर्फ एक निशान छोड़कर जानवरों को लगभग मिटा देता है। वह पूरी तरह से मौजूद नहीं होता है, बस एक संकेत, परोक्ष निर्देश, प्रतिछाया या गूँज रहती है।
इस विज्ञापन में हम मुर्गियों की हल्की सी चीख सुन सकते हैं:

लेकिन कभी भी हमें असल मुर्गियों को चीखते हुए नहीं दिखाया जाता है :

मुखौटा: जानवरों को मानवरूप में दर्शाया जाता है
जब विज्ञापनों में जानवरों को गाते, नाचते, फुटबॉल खेलते या पार्टी हैट पहने हुए दिखाया जाता है, तो उनके अपने जीवन और अनुभवों को मिटा दिया जाता है।जानवरों को मौज-मस्ती पसंद लोगों की तरह व्यवहार करते हुए दिखाकर हमें हँसाया जाता है, और इस तरह हमें बेचे जा रहे उत्पाद को सकारात्मकता और खुशी से जोड़ दिया जाता है। इस तरह के चित्रण में यह बात छुपाई जाती है कि सुअर, गाय, भैंस, बकरी या मुर्गी होना क्या होता है। साथ ही, आधुनिक पशुपालन उद्योग में फंसे जानवर की पीड़ा भी छुपाई जाती है।
केएफसी के विज्ञापन में इस मुर्गी की अकड़ को देखकर हम भी हंस पड़ते।

हमें कभी यह नहीं दिखाया जाता कि आधुनिक पशुपालन उद्योग में ज़िंदा मुर्गी का वास्तविक जीवन कैसा होता है।

मुखौटा: जानवरों को कार्टून के रूप में दिखाया जाता है
जानवरों को कार्टून के रूप में दिखाने से बेहतर मुखौटा और क्या हो सकता है? हम जानते हैं कि कार्टून को दर्द महसूस नहीं होता है – हम उन्हें एक-दूसरे को पीटते हुए, दीवारों से टकराते हुए और चट्टानों से गिरते हुए देख कर हंसते हैं। उन्हें चोट नहीं लगती है! वे ठीक हो जाते हैं! इसलिए जब हम जानवरों के कार्टून चित्र देखते हैं, तो हमारी मान्यता के मुताबिक हम सोच लेते हैं कि असल में उनमें भावनाएँ नहीं होती और इसलिए उन्हें कोई भी चीज़ चोट नहीं पहुँचा सकती है।
हमें यह दिखाया जाता है:

पर हम यह कभी नहीं देखते:

इन जैसे कई और तरीकों से जानवरों को मिटा दिया जाता है, उनको तुच्छ समझा जाता है, उनका मज़ाक उड़ाया जाता है, उनका आदान-प्रदान किया जाता है और उन्हें नकार दिया जाता है। जब ऐसी जानकारी विज्ञापनों के माध्यम से, सड़क पर, ट्रेन स्टेशनों पर, दुकानों की प्रदर्शनियों से, सोशल मीडिया से और माता-पिता तथा दोस्तों के द्वारा थोंप दिए जाने पर – हर तरफ से लोगों तक पहुँचती है तो बच्चे धीरे-धीरे न्याय और करुणा की सहज भावना को अंदर ही अंदर दबाना सीख जाते हैं। जब वे बड़े हो जाते हैं, तो पशुपालन उद्योग के जानवरों को अन्य जानवरों से अलग कर के देखते हैं। अब तक मांस उद्योग उन्हें जो सिखाना चाहता है वे सीख चुके होते हैं, कि कैसे लाभदायक ग्राहक बने, कैसे एक जानवर से प्यार करें, और दूसरे को खाएं।
अगर हम वाकई में परवाह करें तो क्या होगा?
जो लोग कभी परवाह करना नहीं छोड़ते हैं उनको रोकने के लिए मांस उद्योग के पास एक आखिरी हथियार है; पर हम मानते हैं कि अधिकांश लोग अभी भी परवाह करते हैं, भले ही उद्योग उनकी भावनाओं को कमजोर करने के लिए कितनी भी कोशिश क्यों न करता हो। आखिरी हथियार आज़माने के लिए वह प्रामाणिक दिखने वाले फुटेज और कल्पना के माध्यम से लोगों को दिलासा दिलाता है कि इन उद्योगों में प्राणियों की अच्छी तरह से देखभाल की जाती है, उनका जीवन सार्थक है, और उन्हें प्यार किया जाता है। इस तरह, हम सभी बिना अपराधभाव के मांस, दूध और अंडे खा सकते हैं। पर ज़ाहिर है, यह सच नहीं है। पशुपालन उद्योग में जानवरों को प्यार नहीं किया जाता है बल्कि, उनका जीवन दुख, पीड़ा, भय और विनाश से भर दिया जाताहै।
हाल ही में, KFC ने अपने मुर्गी पालन केंद्रों पर उच्च कल्याण मानक प्रदर्शित करने में मदद करने के लिए एक सोशल मीडिया प्रभावक को भुगतान किया। लेकिन उनके द्वारा किए गए दावे सही नहीं थे – जब VFC के जांचकर्ताओं ने फिल्म रिलीज़ होने के कुछ ही सप्ताह बाद उसी केंद्र का अचानक दौरा किया तब सोशल मीडिया प्रभावक के दावे सही साबित नहीं हुए थे। जब विक्रेता के कैमरे चल रहे थे, तब पक्षियों को जो गुणवत्तायुक्त पदार्थ दिये जा रहे थे, वह वापस ले लिए गए थे। शायद वे उस काल्पनिक फिल्म की सजावट के लिए ही थे।
दरअसल ऐसा हुआ था।
खुद के प्रति ईमानदार रहना
सच्चाई, सभ्यता, करुणा और प्रेम के प्रति हमारे सहज रुझान के विरोध में मांस उद्योग पूरी तरह से लगा हुआ है। हम जानवरों पर हंसे, उन्हें तुच्छ, मूर्ख या हास्यास्पद समझें या उन्हें बिल्कुल अनदेखा करें इसी तरह का माहौल पैदा किया जाता है। हमें सिखाया जाता है कि हम हमारी प्रेमपूर्ण और सच्ची सहज भावनाओं को कुचल डालें और पेचीदा – तर्कहीन – दलीलें करें ताकि जानवरों को खाने के साथ-साथ हम खुदको “पशु प्रेमी” साबित कर सकें।
लगातार ऐसे संदेशों को हम तक पहुँचाने के लिए मांस उद्योग अपने बड़े बड़े मार्केटिंग बजट और पक्ष जुटाव की ताकत का इस्तेमाल करता है। इसका बहुत बड़ा मुनाफा इस बात पर निर्भर करता है कि हम अपनी सच्ची भावनाओं को अनदेखा करें या उन पर कभी अमल न करें। इस तरह, मांस उद्योग हमारे साहजिक गुणों का गला घोंट देता है साथ ही जानवरों के जीवन को कुचल डालता है और उन्हें नकार देता है।







