स्रोत: पूरे, जे, और नेमेसेक, टी. (2018). उत्पादकों और उपभोक्ताओं के माध्यम से भोजन के पर्यावरणीय प्रभावों को कम करना।
संयुक्त राष्ट्र खाद्य और कृषि संगठन के अनुसार, जितनी भी मानव-जनित ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन होता है, उसमें से 14.5 प्रतिशत गैसों के लिए पशुपालन उद्योग ज़िम्मेदार है, जिसका अर्थ है कि यह आँकड़ा पृथ्वी पर हर कार, विमान, बस, जहाज और ट्रेन से निकलने वाले उत्सर्जन से कई गुणा ज़्यादा है। अन्य शोधकर्ताओं ने यह आंकड़ा और भी अधिक रखा है।
पशुपालन उद्योग से निकलने वाला उत्सर्जन खुद एक बड़ी भूमिका निभाता है, लेकिन मांस, दूध और अंडे के उत्पादन में लिया जाने वाला हर कदम हानिकारक होता है, जिसमें चरने या चारा उगाने के लिए वनों की कटाई से लेकर, जानवरों को वध के लिए बूचड़खाने पहुँचाने तक, और उत्पादों को प्लास्टिक में पैक करने से लेकर, उत्पादों को जमा (ठंडा) कर दुनिया भर में भेजना भी शामिल है। ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के शोध ने निष्कर्ष निकाला कि वनस्पति-आधारित आहार अपनाने से हम अपने स्वयं के खाद्य उत्सर्जन को 73 प्रतिशत तक कम कर सकते हैं, पर यह इस बात पर निर्भर करता है कि हम कहाँ रहते हैं। भारत मछली, मुर्गी पालन, डेयरी गायों और बकरियों के प्रमुख उत्पादकों में से एक है, और इसलिए इस समस्या के प्रमुख योगदानकर्ताओं में से एक है।
पशुपालन उद्योग का जलवायु पर बहुत खराब प्रभाव पड़ता है, लेकिन मांस, अंडे और डेयरी की हमारी खपत के अन्य गंभीर पर्यावरणीय प्रभाव भी हैं।
पशुपालन उद्योग अविश्वसनीय रूप से अक्षम है। यह 83 प्रतिशत कृषि भूमि का उपयोग करता है लेकिन इसके बदले हमें केवल 18 प्रतिशत कैलोरी ही प्रदान करता है। मांस की वैश्विक मांग को पूरा करने के लिए अधिक से अधिक भूमि की आवश्यकता होती है, इसलिए प्राचीन वर्षावन और अन्य आवास नष्ट किये जा रहे हैं। बीफ (गौ मांस) उत्पादन अमेज़न के लगभग 80 प्रतिशत वनों के विनाश के लिए ज़िम्मेदार है।
भारत में दुनिया का सबसे बड़ा डेयरी झुंड है और यह सबसे अधिक प्रदूषण फैलाने वाले उद्योगों में से एक है। जानवरों के मल में मौजूद नाइट्रोजन और फास्फोरस जलमार्गों में चला जाता है जहां पर पहुँचकर यह शैवाल के विकास में मदद करता है जिससे जलमार्गों में ऑक्सीजन की कमी होती है, और यह जलीय जीवन के मृत्यु का कारण बनता है। पिछले कई दशकों से पोषक तत्व प्रदूषण ने कई धाराओं, नदियों, झीलों और खाड़ियों को प्रभावित किया है जिसके परिणामस्वरूप गंभीर पर्यावरणीय और मानव स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं उत्पन्न हुई हैं।
जैसे पशुपालन उद्योग का कचरा अन्य जलमार्गों को प्रदूषित करता है, वैसे ही यह कचरा महासागरों में भी मिल जाता है। पशु अपशिष्ट में मौजूद पोषक तत्व शैवाल का विकास करते हैं जो बाद में महासागरों को ऑक्सीजन विहीन कर देते हैं, जिससे महासागर मृत क्षेत्र बन जाते हैं। मछली पकड़ने का उद्योग न केवल महासागरों का सबसे बड़ा प्लास्टिक प्रदूषक है, बल्कि यह पूरी जलीय प्रजातियों को विलुप्त होने की ओर भी ले जाता है, जबकि लाखों अन्य लुप्तप्राय जानवरों, जैसे कि कछुए, शार्क, किरणें और अल्बाट्रोस को यह उद्योग मार देते हैं। और, जैसे ही ट्रॉलर समुद्र तल के अन्दर भारी जालों को डालते हैं, वे समुद्री जीवों के नाज़ुक आवासों और बेमिसाल पारिस्थिति की प्रणालियों को नष्ट कर देते हैं।