मुंबई के शहरी डेयरी फार्म के अंदर एक नज़र

कुछ अनुमानों के अनुसार, आरे मिल्क कॉलोनी में 16,000 दुधारू भैंस और कुछ गायें हैं। यह संख्या चौंकाने वाली थी। मैं कल्पना भी नहीं कर सकती कि 16,000 पशु कैसे दिखते होंगे। और कल्पना कीजिए कि इतने सारे पशु मेरे घर से बमुश्किल आधे घंटे की दूरी पर हैं। मुझे यह देखना था कि एक जंगल इतने सारे पशुओं को कैसे रख सकता है।

अक्टूबर की एक ठंडी सुबह, हम मुंबई के तेजी से घटते आरे जंगलों में स्थित आरे मिल्क कॉलोनी का दौरा करने के लिए निकले। “मुंबई के फेफड़े” के रूप में जाना जाने वाला यह जंगल अत्यधिक निर्माण के कारण खतरे में है। लेकिन इसके अंदर एक गहरा राज़ छुपा है।

जंगल से गुज़रने वाले किसी भी व्यक्ति ने ये ऊंची दीवारों के तबेले देखे होंगे जिनकी छत का ऊपरी भाग खुला रखा जाता है ताकि भैंस के गोबर की गंध जंगल मे फैल जाए।। भैंसें किसी को नहीं दिखतीं, लेकिन हम सबको बस इतना पता है कि वे वहाँ हैं।

 स्रोत: AniPixels.com

मुंबई में बड़े होते हुए हम सभी जानते थे कि आरे जंगल में डेयरी फार्म थे और इसे इस कारण से ‘आरे मिल्क कॉलोनी’ कहा जाता था। भारत में जो लोग श्वेत क्रांति (ऑपरेशन फ्लड) लाये थे, उन्हीं लोगों द्वारा 1970 के दशक में स्थापित सहकारी समिति का गठन किया गया था जिसके कई कारण थे परन्तु इसके दो मुख्य कारण थे : शहरी क्षेत्रों से गायों और भैंसों को स्थानांतरित करना और यह सुनिश्चित करना कि मुंबई शहर में दूध की आपूर्ति होती रहे। कानूनी तौर पर, कॉलोनी में 30 तबेले बनाने की अनुमति दी गई थी जिसमें 500-550 जानवरों को रखा जा सकता था। यह जंगल में गाँव हैं जिनके स्थानीय लोग अपने दुधारू जानवरों और मुर्गियों के साथ वहां रहते हैं।

जब हम जंगल में दाखिल हुए तो तापमान में निश्चित रूप से गिरावट आई, जैसा कि किसी भी घने जंगल वाले इलाके में होता है। हम जितना अंदर गए, गंध उतनी ही तीव्र होती गई, अमोनिया और हाइड्रोजन सल्फाइड ने मिलकर इसे विशिष्ट तबेले की दुर्गंध दे दी।

हम कुछ तबेलों से गुज़रे, जब तक कि हमने एक तबेले पर रुकने का फैसला किया, जिसके बाहर एक व्यक्ति एक बड़ी स्टील की बाल्टी और भैंसों के दूध की छोटी प्लास्टिक की थैलियों के साथ खड़ा था, जो दूध शायद कुछ घंटे पहले लिया गया था। पैदल गुज़रने वाले लोग तबेले की दीवारों के पीछे क्या हो रहा था, इस बात से बेखबर इस “ताज़ा” दूध को खरीद रहे थे।

सुबह के लगभग 7 बजे थे और कर्मचारी अपने सुबह के कामों में व्यस्त थे, झाड़ू से तबेले साफ कर रहे थे, भैंसों के लिए सूखी घास लेकर घूम रहे थे, चाय बना रहे थे और जानवरों की जाँच कर रहे थे।

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जब हम पहले तबेले में दाखिल हुए, तो हम भय से भर गए। बीच में एक लंबा रास्ता था, उस संकरे रास्ते पर दोनों ओर 80-100 भैंसें हमारी तरफ़ पीठ करके खड़े थे। सभी भैंसें जिज्ञासा और डर से हमारे अज्ञात चेहरों की ओर देखने लगीं। उन्हें दीवारों की ओर मुंह करके बहुत छोटी रस्सियों से बांधा गया था, और वे अपनी पूँछें उस रास्ते के करीब घुमा रहे थे जिस पर हमें चलना था।। उनके ठीक सामने, एक आदमी घास की गठरियाँ गिरा रहा था लेकिन उन सभी ने हमें देखने के लिए खाना बंद कर दिया।

वीगन होने के नाते, हम डेयरी उत्पादन के पीछे की सच्चाई को भली-भांति जानते हैं, लेकिन फ़िर भी जब भी हम इन जानवरों से मिलते हैं और उनकी आँखों में भय और दर्द को महसूस करते हैं, तब हर बार हम व्याकुल और परेशान हो जाते हैं। यह देखकर हमें बहुत दुःख हुआ, लेकिन हमें अपनी भावनाएँ छिपानी पड़ीं, साथ ही हम यह भी कोशिश कर रहे थे कि हम मूत्र और गोबर से सने हुए सख्त, गीले सीमेंट वाले फर्श पर न फिसलें।

एक को छोड़कर सभी भैंसें मादा थीं। तबेले की शुरुआत में ही बंधा अकेला नर बैल मादाओं से बहुत बड़ा था, लेकिन वह हमसे सबसे ज़्यादा डर रहा था। हालाँकि, सबसे दुखद बात यह थी कि उस तबेले में लगभग पाँच या छह मादा बछिया थीं।

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बस एक सेकंड के लिए 100 मादा भैंसों की कल्पना करें, जो सभी दूध दे रही हैं। ऐसा करने का एकमात्र कारण उनकी संतानें हैं। वे किसी समय गर्भवती थीं और उन्होंने बच्चों को जन्म दिया। लेकिन उनके बच्चे इस फार्म पर उनके साथ नहीं थे। वहां मौजूद छह बच्चों में से एक बच्चे को उसकी मां के पास बांध दिया गया था, शायद इसलिए क्योंकि उसकी मां दूध तभी छोड़ती थी जब उसका बच्चा आसपास हो। बाकी पांचों बच्चों को उनकी मां से दूर रखा गया था और वे लगातार अपनी माँ को बुला रहे थे। वे बच्चे भी हमसे वैसे ही डर रहे थे लेकिन फ़िर भी वे इतने जिज्ञासु थे कि हमें अपने करीब आने दे रहे थे। अन्य तबेलों में कुछ बड़े बछड़े खंभों के पास बंधे हुए थे, जो अपनी माताओं को देख पा रहे थे, लेकिन अपनी माताओं को छू नहीं पा रहे थे। फार्म में एक नर बछड़े को उसके मरने तक भूखा रखा जा रहा था। ये भारत के सभी डेयरी फार्मों में होने वालीं स्वीकृत प्रथाएँ हैं।

वहां एक श्रमिक एक हाथ में पेरासिटामोल की एक छोटी बोतल और दूसरे हाथ में एक सिरिंज लेकर तबेले के चारों ओर घूम रहा था। वह एक भैंस के पास गया और तेजी से उसकी पीठ में सिरिंज घोंप दी और दवा छोड़ने के लिए उस पर दबाव डाला। उसने कई बार सिरिंज को वापस भरा और कई अन्य भैंसों को इंजेक्शन लगाया। उन सभी भैंसों को बुखार था और वह उन्हें बुखार की दवा दे रहा था। एक अन्य श्रमिक ऑक्सीकॉन्टिन से भरी एक बहुत बड़ी सिरिंज लेकर घूम रहा था, जिसे सुबह 11 बजे कम दूध देने वाली मादा भैंसों को दिया जाता था ताकि शाम 4 बजे तक दूध दुहने के दौरान उनके शरीर अधिक दूध का उत्पादन करने के लिए मजबूर हो जाएं। वह श्रमिक कोई पशुचिकित्सक नहीं था, सिर्फ एक दिहाड़ी मजदूर था जो वही कर रहा था जो उससे कहा गया था।

हम जानवरों से दोस्ती करने की उम्मीद से अपने साथ गाजर साथ ले गए थे। हमने एक श्रमिक से अनुरोध किया कि वह ये गाजर खिलाकर भैंसों से हमारी दोस्ती कराने में हमारी मदद करे। लेकिन हम जिन 300 भैंसों से मिले उनमें से एक भी भैंस ने हमारी या उस श्रमिक की दोस्ती स्वीकार नहीं करी। जैसे ही वह उनके पास गया, भैंसों ने अपने शरीर को उससे दूर करने की पूरी कोशिश की। इंसानों द्वारा किया गया विश्वासघात उनके मन में बहुत गहराई तक अंकित हो गया था, वे हम पर बिल्कुल भरोसा नहीं कर रहीं थीं, भले ही हमने उन्हें बताया हो कि हमारे मन में उनके लिए बहुत प्यार है और हम उन्हें कोई नुकसान नहीं पहुँचाएंगे।

हम इस फार्म में और आगे चले और हमने 300 से अधिक भैंसें और लगभग 10 और बछड़े देखे। श्रमिक भैंसों को मार रहे थे क्योंकि यही एकमात्र तरीका था जिससे वे उनकी बात सुन रही थीं। एक तबेले के बाहर, एक नर भैंस को मादा भैंस पर चढ़ने और उसे गर्भवती करने के लिए मजबूर किया जा रहा था। हिंसा के इस निरंतर चक्र का खामियाजा जानवरों को तो भुगतना पड़ रहा था, लेकिन इसका असर मज़दूरों के चेहरे पर भी दिख रहा था।

कई श्रमिक शहर के बाहर से आये थे और यहां काम कर रहे थे क्योंकि वे किसी अन्य नौकरी के लिए उपयुक्त नहीं थे। कुछ लोग नशे में थे, शायद उन्होंने शराब पी थी, और अधिकांश श्रमिक तम्बाकू चबा रहे थे ताकि वे जानवरों का दूध निकालने के मानसिक और शारीरिक तौर पर थका देने वाले सख्त काम में लगे रहें, जो सुबह 3 बजे से शुरू होता था।। वे अपने सहकर्मियों के साथ छोटी-छोटी झोपड़ियों में रहते थे और प्रति माह मात्र ₹10,000 से ₹12,000 कमाते थे, जो उनके और गांवों में उनके परिवार के खर्चों को पूरा करने के लिए मुश्किल से ही पर्याप्त था। देर से जागने या छुट्टियां लेने पर उनका वेतन काटा जाता है। वे भी डेयरी उत्पादन के दुष्चक्र में फंस गए थे, वे भैंसों के साथ दुर्व्यवहार करने के लिए मजबूर थे, वे इस काम को अनिच्छा से कर रहे थे और इस काम में उन्हें खुद भी दुर्व्यवहार का सामना करना पड़ रहा था।

जब हमने उनसे आगे बात की तो पता चला कि रात के अंधेरे में एक ट्रक आता है और बछड़ों को बूचड़खानों ले जाता है। हमें लगा था कि वे मादा बछड़ों को फार्म पर रखते होंगे और नर बछड़ों से छुटकारा पाने के लिए उन्हें बूचड़खाने भेजते होंगे, लेकिन तबेलों में बांधे गए प्रत्येक जानवर के लिए मालिक से शुल्क लिया जाता है, इसलिए लागत कम रखने के लिए, बहुत कम बछड़ों को फार्म पर रखा जाता है। इनमें से अधिकांश शिशुओं को आधी रात को बोरे में डाला जाता है और जन्म के कुछ ही घंटों बाद उन्हें “बॉबी वील (बछड़े के मांस)” के रूप में बेचने के लिए बूचड़खाने भेज दिया जाता है और उनकी माँ हमेशा के लिए अकेली रह जाती हैं।

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ज्यादातर लोग डेयरी उत्पादों के बारे में सोचते समय गायों की कल्पना करते हैं, लेकिन भारत में करीब 110 मिलियन एशियाई जल भैंसें हैं जो गायों के साथ चुपचाप डेयरी उत्पादन प्रणाली में फंसी हुई हैं। चुपचाप क्यों? क्योंकि कोई भी इनके अधिकारों के लिए उतना नहीं लड़ता जितना वे पवित्र गाय के लिए लड़ते हैं और डेयरी फार्मों और डेयरी उद्योग की सभी भैंसों का वध कर दिया जाता है। भारत के कई राज्यों में जहां गोहत्या पर प्रतिबंध है, भैंस के मांस को गोमांस के रूप में बेचने की अनुमति है। और ये मांस डेयरी उद्योग से आ रहा है। भैंसों के मांस को ‘काराबीफ’ के नाम से जाना जाता है, यह फिलिपिनो अंग्रेजी से लिया गया शब्द है और इसे इसी नाम से बेचा जाता है।

भैंसें भारत के 45 प्रतिशत दूध की आपूर्ति करती हैं और वे भारत में डेयरी उद्योग का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। वे भारत के बीफ और वील निर्यात का भी एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं, जिसका मूल्य वित्तीय वर्ष 2023 में 3.19 बिलियन डॉलर था। डॉलर और वजन के हिसाब से, उनका मांस श्वेत क्रांति का एक उप-उत्पाद है। डेयरी उद्योग और गोमांस उद्योग स्वाभाविक रूप से जुड़े हुए हैं।

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